17 वीं लोकसभा चुनाव 2019 अब आसन्न है। चुनाव के इस मौसम में यह किसानों के स्वतंत्रता के लिए एक दलील है, आजादी की पुकार है। है।। यह एक ऐसी अपील है जिसे प्रत्येक नागरिक को सुनना चाहिए और इस पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि दांव पर केवल किसानों का भविष्य ही नहीं बल्कि भारत अर्थात इंडिया का भविष्य का सवाल है।किसानों का घोषणापत्र पीडीऍफ़ (PDF) फाइल पढ़िए।
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यह हिंदी अनुवाद एक मसौदा है, जिसे अपडेट किया जाएगा। इस किसान घोषणा पत्र का नवीनतम संस्करण अंग्रेजी में उपलब्ध है।
Farmers’ Manifesto for Freedom 2019 (English PDF)
Hindi किसानों का घोषणापत्र: आज़ादी की मांग 2019 (हिंदी PDF)
Bengali কৃষকদের ঘোষণাপত্র: স্বাধীনতার দাবি 2019 (বাংলা PDF)
Gujarati ખેડૂતોનાસ્વતંત્રતામાટેખેડૂતનોજાહેરનામું 2019 (ગુજરાતી PDF)
Marathi शेतकरी स्वातंत्र्याचा जाहीरनामा 2019 (मराठी PDF)
Telugu స్వాతంత్ర్యం కోసం రైతుల మేనిఫెస్టో 2019 (తెలుగు PDF)
किसानों का घोषणापत्र: आज़ादी की मांग
न्याय, शांति और समृद्धि की ओर
न्यायबंदी—धनमुक्ति — धनवापसी
भारत द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता हासिल करने के सात दशक बाद भी हमारी आबादी का सबसे बड़ा वर्ग, किसान, नियमों और कानूनों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है।
संपत्ति के अधिकारों को मान्यता
समाज के किसी भी अन्य वर्ग की तुलना में किसानों की संपत्ति के अधिकार पर सबसे अधिक और लगातार प्रहार हुए हैं जिनसे उनका अत्यधिक नुकसान हुआ है।
भूमि:
संपत्ति ही किसानों का मूलधन है, फिर भी लगातार मंडराता अधिग्रहण का खतरा, भूमि के उपयोग, किराए और पट्टे पर प्रतिबंध के साथ साथ भूमि के स्वामित्व की अधिकतम सीमा निर्धारण, भूमि के खराब अभिलेखन वाली विशेषता, ऋण और निवेश तक सीमित पहुंच, भूमि का अपर्याप्त दोहन और उच्च स्तर के भ्रष्टाचार ने इस संपत्ति का व्यापक अवमूल्यन किया है। कृषक समुदायों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हुए भी जनजातीय और अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदायों के लोग भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकारों को मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
कृषि उत्पाद:
व्यापार और बाजार तक किसानों की पहुंच पर तमाम प्रतिबंध लगाकर किसानों द्वारा कठिन श्रम से पैदा की गई उत्पाद (संपत्ति) का अवमूल्यन किया गया है। इस प्रकार, नीतियों और राजनीति के बीच की सांठगांठ ने सोची समझी रणनीति के तहत कृषिकार्य से अर्जित होने वाली आय को दबाकर रखा है।
तकनीकिः
पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम करते हुए उत्पादकता और आय को बढ़ाने में तकनीकि के प्रयोग की अहम भूमिका है, फिर भी कृषिकार्य में तकनीकि का प्रयोग सीमित अथवा प्रतिबंधित है। इससे किसानों द्वारा फसल उगाने की क्षमता कम तो होती ही है पर्यावरण पर भी अनावश्यक दबाव पड़ता है। कई बार तो किसानों को संलग्न जोखिम के साथ चोरी छिपे नई तकनीकि का इस्तेमाल करने को बाध्य होना पड़ता है।
17 वीं लोकसभा चुनाव 2019 अब आसन्न है और यह किसानों के द्वारा मुक्ति का आह्वान है। यह एक ऐसी अपील है जिसे प्रत्येक नागरिक को सुनना चाहिए और इस पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि दांव पर केवल किसानों का भविष्य ही नहीं बल्कि “भारत, अर्थात इंडिया” का भविष्य भी है।
- कृषि भारत का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र उपक्रम है। कानूनी और नियामक प्रतिबंधों के द्वारा किसानों को गरीबी की जंजीरों से जकड़ कर रखे जाने से समस्त नागरिकों की आजादी और समृद्धि क्षीण हुई है।
- किसान अपनी उपज की कम कीमतों, और बाजार तक पहुंच की कमी के कारण पीड़ित हैं, जबकि उपभोक्ताओं को बहुत अधिक कीमत चुकाना पड़ रहा है।
- नोटबंदी के साथ, प्रत्येक भारतीय को निजी संपत्ति पर सरकार के हमले के दायरे की झलक मिली। ऐसा ही अनुभव किसान दैनिक आधार पर अपनी संपत्ति के अवमूल्यन के साथ करते हैं। ऐसा ही नवीनतम अनुभव गाय की रक्षा से संबंधित है, जिससे कई किसानों को अपने मवेशियों को आवारा छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इससे न केवल उन्होंने एक पूंजीगत संपत्ति खो दी है, बल्कि अब आवारा मवेशियों के झुंड को फसलों को नष्ट करने से रोकने के लिए खेत में रातों की नींद हराम करनी पड़ रही है।
‘भारत’ में किसानों के अधिकारों में कटौती और उनकी आजादी को कम करके ‘इंडिया’ कभी भी समृद्ध नहीं हो सकता है।
आजादी की मांग करने वाले किसानों का घोषणापत्र आहवान कर रहा है:
- भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया के सर्वविदित दुरुपयोग को समाप्त करने के लिए इस कार्य को प्रभावित होने वाले समुदायों की सहमति व सही मायने में सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति के कार्यों तक सीमित रखना;
- कृषियोग्य भूमि की अधिकतम सीमा तय करने वाले एग्रीकल्चर लैंड सीलिंग कानून का उन्मूलन, और भूमि के प्रयोग, किराया, पट्टा और बिक्री सहित कृषि ठेकों पर प्रतिबंध का समापन;
- कृषि उपज विपणन समितियों (APMC) व आवश्यक वस्तु अधिनियम (एसेंसियल कमोडिटीज़ एक्ट्स) जैसे कानूनों को समाप्त कर व्यापार और वाणिज्य को सक्षम और स्वतंत्र बनाना;
- सभी कृषि उपज वाली वस्तुओं में वायदा व्यापार (futures trading) को सक्षम करना, और व्यापार पर तदर्थ और मनमाने प्रतिबंधों का समाप्त करना होगा;
- पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों में संपत्ति के अधिकारों का आवंटन, इन अधिकारों को व्यापार योग्य बनाना;
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम और जैव सुरक्षानियमों के दायरे को सीमित कर के सूचना, प्रौद्योगिकियों और रणनीतियों तक किसानों के पहुंच को आसान बनाना;
- सार्वजनिक संस्थानों और निजी निकायों में मुक्त अनुसंधान, और विस्तार सेवाओं का पुनरुद्धार, जिससे किसान जानकारी के साथ सशक्त बनकर स्वयं उचित निर्णय ले सकें;
- पर्यावरण की दृष्टि से वांछनीय और सामाजिक रूप से लाभकारी गतिविधियों जो किसानों के लिए कोई वित्तीय लाभ नहीं दिलाता, ऊपर से किसान लागत वहन करते हैं, उस नुकसान की पूर्ण भरपाई के लिए वित्तीय अनुदान;
- विकेन्द्रीकृत भंडारण और प्रसंस्करण उद्योग में निवेश को प्रोत्साहित कर स्थानीय स्तर पर आर्थिक और रोजगार के अवसरों को बेहतर बनाने के लिए बेहतर ग्रामीण बुनियादी ढाँचा;
- आदिवासी परिवारों और अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदायों की भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों की मान्यता देना होगा;
- नागरिकों की पहल को सक्षम करने और भूमि की स्थिति, इसके उपयोग और उपयोगकर्ताओं, स्वामित्व और सामुदायिक स्तर पर अन्य दावेदारों को रिकॉर्ड करने के लिए, एक सरल और पारदर्शी तरीके से, भूमि रिकॉर्ड प्रणाली को प्रलेखन के लिए सक्षम करना;
- न्यायिक समीक्षा और किसानों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संविधान की नौवीं अनुसूची का निरसन।
आज़ाद समाज की रुपरेखा
मुक्ति का यह आह्वाहन तीन मौलिक नीतियोँ के तर्क पर आधारित है। साथ में यह इस घोषणा पत्र के कृषि सुधार प्रस्तावों को एक सुसंगत योजना के रूप में एकीकृत करता है, हालांकि, ये सिद्धांत सभी अर्थव्यवस्थाओं और समाजों में मान्य हैं।
न्यायबंदी — पचास वर्षों में भुखमरी से अधिशेष (सरप्लस) की ओर बढ़ने में भारतीय कृषि की अद्भुत सफलता के बावजूद, कानूनन गुलामी झेलते किसान दरिद्रता में सने हुए हैं।न्यायबंदी ने उन कानूनों और विनियमों के चक्रव्यूह को खत्म करने का आह्वान करता है, जिससे किसानों को गरीबी में जकड़ा है। और इसलिए किसानों को न्याय सुनिश्चित कराना एक राष्ट्रीय अनिवार्यता होनी चाहिए।
धनमुक्ति — किसान गरीब हैं, क्योंकि जो भी थोड़ी बहुत संपत्ति उनके पास है, उन्हें उसे पूंजी में परिणत करने की इज़ाजत नहीं है। न्याय सुनिश्चित करने से किसान अपनी भूमि और अन्य परिसंपत्तियों का मूल्य निर्धारित कर सकेंगे। धनमुक्ति, परिसंपत्तियों को भुनाने का मार्ग प्रशस्त करता है, निवेश की सुविधा प्रदान करता है, उत्पादकता और विकास में सुधार करता है, शांति और समृद्धि के लिए एक वातावरण प्रदान करता है।
धनवापसी — मुक्ति का यह माहौल तभी बरकरार रह सकता है जब सरकार नियंत्रित हो, कानून और व्यवस्था बनाए रखने के मुख्य कार्यों तक अपनी गुंजाइश सीमित रखे और न्याय प्रदान करे। यह लोगों को संपत्ति को तरल करने और वापस करने (धनवापसी) का आह्वाहन है, जिसे सरकार ने वर्षों से लोगों से भूमि, प्राकृतिक संसाधनों और राज्य उद्यमों की विस्तृत श्रृंखला के रूप में निचोड़ लिया है। इन्हीं संसाधनों के सहारे पर सरकारों को नागरिक की संपत्ति के अधिकारों को कम करने, उनकी स्वतंत्रता को सीमित करने और अन्याय को बरकरार रखने जैसे अनुचित कार्यों को करने के अधिकार से युक्त किया है।
विफल नीतियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास
ऐसे समय में जब राजनीतिक आमसहमति अत्यंत कम है, फिर भी पुरानी नीतियों की पुर्न प्रस्तुति जैसे- उच्च एमएसपी, अधिक सब्सिडी, व्यापार पर प्रतिबंध और ऋण माफी आदि मुद्दों के प्रति स्पष्ट राजनैतिक एकरूपता है। इस कड़ी में सबसे नया आय समर्थन (इनकम सपोर्ट) है, जबकि फसल की कीमतों को कम विकृत करते हुए, यह श्रम बाजार को विकृत करेगा और खेती की लागत को और बढ़ाएगा।
इस तरह के उपाय दर्द निवारक का कार्य तो कर सकता है, जो तत्कालीन संकट स्तिथि में कुछ राहत दे संके। परन्तु, ये वही नियमन हैं जो किसानों के गले में सरकारी फंदे को और कस कर कृषि संकट को बरकरार रखते हैं।
दूरदर्शी किसान नेता स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने ध्यान दिलाया था कि किसान गुमराह किए गए हस्तक्षेपों के बोझ तले दबे हुए हैं, जो सभी ने बाजार को विकृत कर दिया है, लागतों को बढ़ा दिया है, फसल की कीमतों को दबा कर रखा है. और किसानों को आय से वंचित कर दिया है। जोशी ने किसानों पर थोपे गए नियामक संबंधि बोझ की पहचान करते हुए कर्ज मुक्ति का आह्वान किया था। इसलिए, पुरानी विफल नीतियों की पुर्न प्रस्तुति कृषि में आवश्यक मौलिक सुधारों का विकल्प नहीं हो सकती हैं, जो हमारे किसानों के लिए प्रगति, लाभ और समृद्धि की दिशा में आमूल परिवर्तन का आह्वान करती हैं।
कृषि का संदर्भ
प्राचुर्य के बीच गरीबी
1950 और अब के बीच, भारत की जनसंख्या चार गुना बढ़ी, जबकि इसी दरम्यान खाद्यान्न उत्पादन में लगभग छह गुना वृद्धि हुई। पिछले 15 वर्षों में, भारत एक प्रमुख कृषि निर्यातक के रूप में उभरा है, और पिछले वर्ष 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के उत्पादों का निर्यात किया था।
पांच दशक पहले भूखमरी झेलने वाला भारत आज दुनिया के शीर्ष पाँच सबसे मोटे लोगों वाले देशों में से है। फिर भी, भूख अभी भी शिकार करती है, लगभग 15% आबादी कुपोषित है, जिसमें 5 साल से कम के 40% बच्चे भी शामिल हैं। एक ओर जहां सरकार के पास दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न भंडार है, वहीं खराब बुनियादी ढांचे से अनाज की भारी बर्बादी होती है। विनियामक अड़चनों ने फलों और सब्जियों के भंडारण और प्रसंस्करण में निवेशको बर्बाद कर दिया है, जिससे कचरे का ढेर और बढ़ा है। इसके अलावा, खाद्यपदार्थों की गुमराह वितरण प्रणाली ऐसे लोगों को ढूंढने में असफल रही है जिन्हें इन खाद्यपदार्थों की सबसे ज्यादा जरूरत है।
कई फसलों की पैदावार – तिलहन और फलियां विशेषरूप से, स्थिर हो रही हैं जिससे ये फसलें किसानों के लिए कम लाभदायक बन रही है। खाद्य तेलों के आयात पर प्रतिवर्ष लगभग 70 हजार करोड़ रूपए खर्च किए जाते हैं जो कि हमारे किसानों द्वारा उत्पादकता में वृद्धि कर के कमाया जा सकता है। दुनिया के विकसित देशों की तुलना में हमारे यहां पशुधन, फल और सब्जी के फसलों की उत्पादकता कम है। कीटों और रोगाणुओं की समस्या को नियंत्रित करना भी परेशानी का सबब है।
फूट डालो और शासन करो
वर्ष 2030 तक जीडीपी का आकार आज के 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का दोगुना होने के साथ भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का अनुमान है। लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 15% तक गिर गया है और यह आगे भी सिकुड़ता रहेगा। फिर भी लगभग 50% आबादी कृषि पर निर्भर रहना जारी रखेगी।
किसानों को हमेशा नायक या अन्नादता के तौर पर अभिवादन किया जाता है, फिर भी 40% किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, और लगभग दो-तिहाई किसान अपने बच्चों को कृषि कार्य में नहीं लगने देना चाहते हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या कृषि में स्थायी संकट की चरम अभिव्यक् हैं।
भारी सब्सिडी के लंबे सरकारी दावों के बावजूद, स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने 1990 के दशक की शुरुआत में बताया था कि कृषि पर दरअसल “नकारात्मक सब्सिडी” आरोपित थी। वास्तव में कृषि पर कर लगाया जा रहा था। पिछले साल एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था कि सरकारी नीतियों के कारण किसानों को उनकी उपज के ऐवज में प्राप्त होने वाली कम कीमतों के कारण सभी सब्सिडियों का प्रभाव निष्फल हो जाता है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वर्ष 2000 और 2016 के बीच कृषि में ऋण का नकारात्मक समर्थन, औसतनचौदह प्रतिशत (-14%) था।
इसके बावजूद, “सब्सिडाइज्ड” किसानों वाली इस व्याख्या का इस्तेमाल ग्रामीण भारत और शहरी इंडिया को विभाजित करने के लिए किया गया है। उपभोक्ताओं की सुरक्षा के नाम पर किसानों पर लगाम लगाने के लिए हर प्रकार के नियंत्रण और रोक को तर्कसंगत ठहराया गया है। “कराधान से रहित” और दरिद्र किसानों को करदाताओं के नुकसान के लिए दोषी ठहराया जाता है, हालांकि उपभोक्ताओं को भी वादा किए गए लाभों में से ज्यादा कुछ नहीं मिला है।
दमघोंटू कानून
1991 से किए जा रहे आर्थिक सुधारों के सभी दावों के बावजूद, आज भी भारत का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र, कृषि बेड़ियों में जकड़ा हुआ है।
खेती की सभी अवस्थाएं जैसे कि भूमि से लेकर बीज तक और विभिन्न प्रकार के निवेशों से लेकर उत्पादों तक कानूनों और नियमों के एक चक्रव्यूह द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसी तरह, किसानों के ऋण, बुनियादी ढाँचे, बाजार और प्रौद्योगिकी आदि सभी सुविधाओं तक पहुंच सीमित व प्रतिबंधित या निषिद्ध भी है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की खराब गुणवत्ता और गैर-कृषि क्षेत्रों में आर्थिक अवसरों की कमी को देखते हुए किसान न तो कृषि छोड़ सकते हैं और न ही गैर कृषि क्षेत्र में आजीविका के वैकल्पिक साधन खोज सकतेहैं। किसानों को जाने के लिए कहीं जगह नहीं है। ज्यादातर किसान सिर्फ परेशान ही नहीं हैं, बल्कि वे जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे अवसर की तलाश में हैं और समृद्धि हासिल करने के लिए किसी तूफान तक के रुख को मोड़ने को तैयार हैं।
भारतीय कृषि गरीबी का पर्याय बन गई है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि किसान असमर्थ हैं, बल्कि इसलिए है कि किसानों को उनकी संपत्ति की कीमत तय करने और उनकी स्वतंत्रता और उद्यम की भावना को उजागर करने से रोका जा रहा है।
स्वतंत्रता-विरोधी और किसान-विरोधी कानून
भूमि का धन
एक किसान की प्रमुख संपत्ति भूमि है। एक तरफ जहां अर्थव्यवस्था का हर दूसरा वर्ग अपनी संपत्ति को बढ़ाना चाहता है और उन परिसंपत्तियों को अधिक उत्पादक और मूल्यवान बनाने के लिए निवेश करता है, वहीं जब किसान ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो उन्हें निषिद्ध और दंडित किया जाता है। किसानों के ऊपर स्थायी रूप से राज्य की तलवार के साथ भूमि अधिग्रहण का सर्वव्यापी खतरा लटकता रहता है। अधिकांश किसान कानूनी रूप से भूमि किराए पर या पट्टे (लीज) पर नहीं ले सकते। वे अपनी जमीन केवल दूसरे किसान को बेच सकते हैं। लेकिन लगातार संकट में होने के कारण, सिर्फ कुछ किसान ही खेत की जमीन खरीदने का खर्च वहन कर सकते हैं, वह भी लैंड सीलिंग कानून का उल्लंघन किए बिना।
चूँकि खेती को एक व्यावसायिक उद्यम के रूप में नहीं बल्कि जीवन-शैली के रूप में देखा जाता है, इसलिए किसानों को अपनी भूमि उपयोग पैटर्न को बदलने से रोक दिया जाता है। यहां तक कि वे कृषि कार्य छोड़ भी नहीं सकते क्योंकि ऐसा करने पर भी प्रतिबंध है।
सामान्य आर्थिक लेन-देन जैसे कि भूमि का किराया, पट्टा या बिक्री को प्रतिबंधित करने वाले भूमि कानूनों को दरकिनार करने की बजाय मॉडल भूमि पट्टा, अनुबंध कृषि कानून आदि आदि के रूप में नियमों की नई परतें लागू की जा रही हैं। कानूनों का बहुलता विधि शासन को स्थानापन्न नहीं कर सकती है, बल्कि इस दृष्टिकोण ने अधिकांश किसानों को सदैव बढ़ती रहने वाली नियामक व्यवस्था के दलदल में फंसा दिया है। इस तरह के कानूनों की अधिकता के कारण मुकदमों की तादात काफी बढ़ गई है जिससे न्यायिक व्यवस्था पूरी तरह से जाम हो गई है। परिणाम स्वरूप अनुबंध को लागू करने का सरल सा कार्य अत्यंत चुनौतीपूर्ण हो गया है और अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
व्यापार करने की स्वतंत्रता
संपत्ति के अधिकारों की मान्यता और सम्मान पर आधारित मुक्त और प्रतिस्पर्धी बाजार, व्यापार की स्वतंत्रता की सुविधा प्रदान करते हैं और ये किसी भी जीवंत और बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक शर्तें हैं। लेकिन किसानों पर तमाम तरह के प्रतिबंध हैं जैसे वे अपनी उपज को कहां, कैसे और किस कीमत पर बेचे। ये सभी प्रतिबंध उनके संपत्ति अधिकारों के उल्लंघन के स्वरूप हैं।
कृषि उपज विपणन समितियां (एपीएमसी), जो किसानों को उनकी पैदावार का उचित मूल्य सुनिश्चित करने और बिचौलियों द्वारा उन्हें शोषण से बचाने के लिए बनाई गयी थी, अब इसके बजाय चुनिंदा लाइसेंस धारी व्यापारियों के लिए कानूनी रूप से एकाधिकार का माहौल तैयार कर दिया है जो अब किसानों और अन्य व्यापारियों के लिए गले का फंदा बन गए हैं।
आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत मूल्य नियंत्रण, कीमतों को स्थिर करने के बजाय, कई कृषि उत्पादों की कीमतों में लगातार और अनियंत्रित उतार-चढ़ाव में योगदान करते हैं। इन कानूनों ने किसानों के लिए जोखिम बढ़ा दिया है, उन्हें खेती में निवेश करने के प्रति सशंकित कर दिया है, व्यापारियों के लिए अनिश्चितता बढ़ा दी है, आपूर्ति बाधित कर दी है और उपभोक्ताओं के लिए परिहार्य संकट पैदा कर दिया है।
कानूनों के मनमाने ढंग से प्रयोग के स्थायी खतरे वाले इस तरह के अनिश्चित वातावरण में, निवेश करने के लिए बहुत कम रुचि और क्षमता रह जाती है। फ़सल कटाई के बाद की सुविधाओं में निवेश की कमी से उच्च स्तर पर अपव्यय, अकुशल व्यापार व वितरण नेटवर्क और खेत के द्वार पर मिलने वाली कीमत और इसका इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं के द्वारा चुकायी जाने वाली कीमतों के बीच भारी फर्क के रूप में परिलक्षित होता है।
वायदा कारोबार
(Futures Trade)
किसान भविष्य की उम्मीदों के बजाय हाल के दिनों में कीमतों के आधार पर फसल लगाते हैं। जब उत्पादन में कमी होती है, तब कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी होती है, और फिर कीमतों में गिरावट आती है क्योंकि किसान अतीत की उच्च कीमतों के आधार पर मुनाफा कमाने की उम्मीद में अधिक रोपण करते हैं। उछाल और गिरावट वाला यह चक्र किसानों और उपभोक्ताओं, दोनों को अनिश्चितता के चरम पर ले जाता है।
सरकार की सदैव बदलने वाली नीतियों और बाजार में हस्तक्षेप के कारण कृषि उत्पाद आधारित वस्तुओं का वायदा कारोबार उतार चढ़ाव से भरा रहता है। इससे बाजार की कार्यप्रणाली को अस्त व्यस्त कर देता है, अनिश्चितता का माहौल पैदा होता है और परिणाम स्वरूप अविश्वास की स्थिति बनती है, जिससे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भ्रष्टाचारियों को प्रोत्साहन मिलता है।
अबाधित वायदा कारोबार से मूल्यों के निर्धारण, मध्यम मूल्य की अनिश्चितता और जोखिम को कम करता है, बाजार में स्थिरता लाता है और पूर्वानुमान को बढ़ाता है जिससे किसानों, व्यापारियों और उपभोक्ताओं को लाभ होता है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से स्वतंत्रता
उत्पादकता में सुधार और पर्यावरण पर प्रभाव को कम करने में प्रौद्योगिकी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक तरफ बाकी अर्थव्यवस्था नवीनतम उत्पादों, सेवाओं और नई तकनीकों तक अधिक पहुंच का आनंद लेती है, वहीं किसानों को सर्वश्रेष्ठ उत्पादों तक पहुंचने और नई प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल के बाबत निर्णय लेने के मामले में अक्षम मान लिया जाता है।
पिछले एक दशक में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) कपास को व्यापक रूप से अपनाने के साथ, भारत दुनिया में कपास का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। इस उपलब्धि का जश्न मनाने के बजाय, जैव प्रौद्योगिकी पर सरकार की अनिर्णय का मतलब है कि भारतीय किसान अब दूसरी पीढ़ी की तकनीक के साथ फंस गए हैं, जो दिन पर दिन प्रभाव खो रहा है। इस दौरान, अन्य देशों में कपास किसान पहले से ही चौथी और पांचवीं पीढ़ी के जीएम कपास के लाभों की कटाई कर रहे हैं।
दुनिया भर में, अबतक 12 फसलों और एक मछली में आनुवांशिक संशोधनों को मंजूरी दी गई है। प्रौद्योगिकी का उपयोग या तो कीट और रोगों के प्रति उनके प्रतिरोध में सुधार करने के लिए किया गया है, या शाकनाशी और सूखे के प्रति सहिष्णुता अथवा उपज को बढ़ावा देने और गुणवत्ता में सुधार के लिए।
एक तरफ सरकार जीएम तकनीक तक पहुंच को सीमित कर रही है, बीज पर मूल्य नियंत्रण लागू कर रही है, और आईपीआर को कम आंकते हुए, किसानों को नए ज्ञान का लाभ देने से इनकार कर रही है। दूसरी ओर किसान अपनी उपज में सुधार के तरीके तलाशने की बेताबी में अपना सबकुछ दांव पर लगाकर बहुत अधिक कीमत पर अनधिकृत बीज खरीद रहे हैं।
इस तरह की नियामक विकृतियों के परिणामस्वरूप, निजी कंपनियां अनुसंधान में अपने निवेश को कम कर रही हैं और नए उत्पादों को वापस ले रही हैं। ठीक इसी समय सार्वजनिक क्षेत्र के अनुसंधान सुविधाओं में कृषि जैव प्रौद्योगिकी पर काम कर रहे अग्रणी भारतीय वैज्ञानिक जीएम सरसों और जीएम बैंगन की स्वीकृति के लिए अत्यधिक देरी का अनुभव किया है। युवा वैज्ञानिक भारत में कृषि जैव प्रौद्योगिकी में प्रवेश करने में संकोच कर रहे हैं, जबकि विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिक लगातार नई संभावनाएं की खोज कर रहे हैं।
लगभग चालीस साल पहले, सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति ने अदूरदर्शी सरकारी नीतियों के कारण भारत को लगभग बायपास कर दिया था। ठीक वैसी ही गलती अब कृषि जैव प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नोलॉजी) को दबाने के क्रम में दोहराई जा रही हैं।
अंतत: किसानों को विशेष कृषि पद्धतियों को चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जो वे अपने संदर्भ में उपयुक्त पाते हैं। फिर आधुनिक विज्ञान और कृषि के अन्य वैकल्पिक स्कूलों के बीच कोई संघर्ष नहीं होगा।
पर्यावरण पर दबाव
जल की उपलब्धता में कमी और पर्यावरण का क्षरण आज कृषि के समक्ष वास्तविक चुनौतियां हैं। उदाहरण के लिए, चावल पर सरकार की भटकाव वाली नीतियां जैसे कि ऐसे गैर पारंपरिक क्षेत्रों से इसकी खरीद, जहां के लोग चावल नहीं खाते हैं आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कारक हैं जो पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जल की उपलब्धता में कमी ला रहे हैं।
इससे खरीफ के मौसम के अंत में धान के अवशेषों (पराली) को जलाने के कार्य को बढ़ावा मिल रहा है ताकि रबी की फसल के लिए खेतों को जल्दी से तैयार किया जा सके। इससे उत्तर भारत में सर्दी के मौसम के दौरान वायु प्रदूषण के बोझ में और ईज़ाफा हो रहा है।
पानी में संपत्ति के अधिकारों का आवंटन, और किसानों और गैर-किसानों के बीच इन अधिकारों के व्यापार को सुविधाजनक बनाने से जल बाजारों का विकास होगा। पानी की कीमत तब यह सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करेगी कि इसका उपयोग सबसे अधिक कुशलतापूर्वक हो।
कराधान में पारदर्शिता
कृषि कार्य ‘कर मुक्त’ है यह एक मिथक है। ऐसा किसानों के अंतहीन शोषण के कार्य पर पर्दा डालने के लिए प्रचारित किया जाता है। दूसरी तरफ, कृषि कार्य कुछ धनाड्य और शक्तिशाली लोगों के लिए कृषि से अर्जित आय के नाम पर गैर कानूनी तरीके से संपत्ति बनाने का जरिया बन गया है।
प्रतिगामी अप्रत्यक्ष करों की जटिल प्रणाली, और योजनाओं और सब्सिडी का घालमेल किसानों पर किए गए अन्याय को छिपाने के माध्यम भर हैं।
एक सरल और न्यायसंगत प्रत्यक्ष कर प्रणाली जो सभी पर लागू होती है वह बहुत अधिक पारदर्शी होगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसानों सहित नागरिक लापरवाही और गलतियों के कई कार्यों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा सकेंगे।
भारत से इंडिया तक
किसानों को बेड़ियों में रखने की कीमत गैर किसानों के द्वारा अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए चुकाए जाने वाले प्रवर्द्धित जद्दोजहद के रूप में परिलक्षित होती है। जब किसानों से मौलिक गरिमा और न्याय के अधिकार को लूट लिया गया, तो समाज और सरकार भी आर्थिक उदारीकरण के लिए संभावित समर्थन के विशाल आधार से वंचित कर दिए गए। इसका प्रभाव गैर कृषि क्षेत्र पर भी सीधे सीधे पड़ा है।
इंडिया तभी समृद्ध हो सकता है जब भारत आजाद होगा। भारत गांवों में निवास करता है ऐसा कहते हुए गांधी जी लाखों लोगों तक पहुंच गए जिससे स्वतंत्रता हासिल करने में सहायता मिली। इसके बावजूद अब भी किसानों को आजादी के फल का स्वाद चखने को नहीं मिला है।।
वर्ष 2019 में गांधी जी की 150वीं जयंती के अवसर पर यह घोषणापत्र आज भारत के किसानों के लिए मुक्ति और न्याय का आह्वाहन करता है और कल के इंडिया के लिए शांति और समृद्धि को सुनिश्चित करने की कामना करता है।
टिप्पणियों और सुझावों के लिए, कृपया लिखें (For comments and suggestions, please write): admin@FarmersManifesto.info or FarmersManifesto@gmail.com
The document captures important issues confronted by the farmers.The approach to address the same needs extensive consultations.It is a way forward for evolving a road-map for sustainable and profitable agriculture.The declining funding support to agricultural R&D is a big concern and this anomaly must also be corrected. PL Gautam former Vice Chancellor.
Thank you very much for your comments. The decline in R&D and extension services are critical factors that have not received adequate attention. The prime aim of this initiative is to try and stimulate a wide ranging discussion with stakeholders and concerned citizens.
प्रथम दृष्टया
एक बात को नहीं माना जा सकता। दिलिंग कानून डेमोक्रेटिक है। क्योंकि जमीन कि भारी मालिकी सामंती करनी से हुई थी। जमीन संसद करने वाले मालिक नहीं बन पाए।
अग्रेजी राज ने भी जमीन पर सरकारी मुहर लगा कर जमीन के सहज मालिकी की प्रथा को पलट दिया।
कुछ इलाके में तो स्थाई बंदोबस्ती कर दी।
सीलिंग पर आपके विचार से यह खूबसूरत घोषणापत्र कमजोर बन जाता है।
आपकी टिप्पणियों का स्वागत है।
सीलिंग कानून रहते हुए सामंतवाद का सोच को ख़तम हो गया ऐसा कोई साबुत सामने नहीं आया। परन्तु सीलिंग कानून से किसानों कोई फ़ायदा नहीं हुआंम ऊपर से नुकसान हुआ। कोई अन्य व्यापार में आगे बढ़ने का रास्ता इस तरह से बंद नहीं किया गया है।
इस मैनिफेस्टो का मकसद है इन मुद्दों पे गंभीर चर्चा को बढ़ावा देना। इस के लिए हर बिंदु पे शुरू से ही एकमत होना जरूरी नहीं है।
आप से आग्रह है की आप इस मैनिफेस्टो का मूल सिद्धांतों को देंखे। अगर मोटे तौर पर दिशा ठीक लगे तो, अपना सहमति दें, और इन विषयों पर चर्चा को आगे ले जाएँ।
धन्यवाद।